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आदमी। फितरत। समाज। तीनों बेहतर हो तो फिर मान लीजिए कि जीवन धन्य हुआ और आप जीवन की जंग जीत गए। लेकिन ऐसा अब शायद ही कहीं होता है। होता भी है कि नहीं यकीन से कोई नहीं कह सकता। मैने देखा है कि जवानी की दहलीज को कैसे बेकरार मुसाफिर पार करते हैं और न जाने कितनी सांसे थम जाती है। यदि किसी कि सांस बची तो जिल्लत भरी। आह भरी। दर्द की याद भरी। उपर से हर उस सफर की निशानी से जूझने की जिद से लहूलुहान जिगर के साथ। यह कैसी सांस और यह कैसा जीवन। बात उस प्यार के सफर की और यार की बेकरारी की जो अचानक से जीने का मतलब ही छीन लेता है। वर्तमान में हम जिस दुनियां में जीते हैं। हर दिन नई चुनौती है। कहीं गरीबी है तो कहीं यारी है। कही चैन है तो कहीं बेकरारी है। इसी बेकरारी से जूझता एक प्रसंग बताता हूं बिहार के पश्चिम चम्पारण जिलान्तर्गत चौतरवा थाना के अधीन है एक गांव कौलाची। गांव में एक बिन ब्याही मां है, जो अपनी लाड़ली को बाप का नाम दिलाने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री तक का दरवाजा खटखटा चुकी है। उसके चेहरे पर बेबसी साफ दिखती है। सीने से अपनी बच्ची को लगाए एक झोपड़े में अपने उस प्यार के बेकरार सफर में खोयी रहती है। कोई बोलता है तो बोलती है वरना खामोशी को ही अब अपना हमसफर मान बैठी है। ऐसा नहीं है कि इस युवती ने अपने प्यार को यूं ही छोड़ दिया। जब यार ने उसे प्यार के सफर से निकाल फेंका तो उसने अबला होने का भ्रम तोड़ा न्यायालय गई। सीएम के दरवाजे गई। यार जेल गया और फिर पुलिस ने कोरम पूरा किया। अर्थात् यह अबला एक बार फिर अबला हो गई और अपनी बच्ची के लिए बस बाप का नाम ढूंढते चल रही है। ऐसे में एक बार फिर आदमी, समाज और उसकी फितरत का घिनौना रुप दिखा है। अब देखना यह है कि कबतक समाज के लोग महिलाओं को अपनी बेकरार सफर का रास्त बनाएंगे।
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